Zenab rehan

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अठारहवाँ अध्याय




इसके बाद के दो श्लोक गीता की प्रशंसा के लिए हैं। लोग इसमें प्रवृत्ति करें इसीलिए कह दिया है कि पठन-पाठन भी ज्ञानयज्ञ है, जिससे भगवान या आत्मा की पूजा ही होती है। फलत: धीरे-धीरे मनुष्य प्रगति की ओर चलते हुए पूर्ण ज्ञानी बनता है। जो पढ़ भी न सके उसे दूसरे पढ़ने वालों के मुख से सुनना ही चाहिए। अगर श्रद्धापूर्वक भक्ति से कोई सुने, तो आगे चल के उसका भी कल्याण हो के ही रहेगा। यहाँ अंतिम श्लोक में \'मुक्त:\' शब्द का मुक्ति या मोक्ष अर्थ न होके प्रयाण, मरण या शरीर का त्याग ही अर्थ है। क्योंकि मुक्ति होने पर पुण्यकर्मियों के शुभ लोक में जाने का सवाल उठता ही नहीं। वह तो निर्वाणमुक्त हो जाता है। उसका आना-जाना कहीं होता नहीं। यह भी तो प्रश्न है कि केवल सुनने वाला मुक्त होगा भी कैसे? यह तो सबसे नीचे दर्जे का है न? लोक का अर्थ वह प्रगतिशील समाज ही है जहाँ ज्ञानचर्चा की अनुकूलता हो। स्वर्गादि लोकों की बात यहाँ उठाना गीताधर्म के अनुकूल नहीं है। गीता तो ज्ञानमार्ग की चीज है न? फिर भी यदि कोई लोक शब्द से स्वर्गादि भी समझ ले तो हमें उससे इनकार नहीं है। मगर केवल उसे ही न समझ प्रगतिशील समाज को भी लोक के अर्थ में लेना ही होगा।

इस तरह कृष्ण को जो कुछ कहना था कह दिया। गीताधर्म के उपदेश के बाद भविष्य में उसके प्रचार की व्यवस्था भी कर दी। इसे ही संप्रदाय कहते हैं और परंपरा भी, जैसी कि चौथे अध्‍याय के शुरू में ही विवस्वान, मनु आदि की परंपरा कही गई है। फिर भी वह परंपरा या संप्रदाय आज की तरह पेशा और दुकानदारी न बन जाए, इसीलिए पहले ही श्लोक में कह दिया है कि किन लोगों से ये बातें कहीं जाएँ। बाद के श्लोकों में तो कौन कहे, कौन न कहे आदि बंधन भी लगा दिए गए हैं।

अंत में जैसा, कि पहले ही कह चुके हैं, कृष्ण ने यह मुनासिब समझा कि जरा पूछ तो देखें कि इन बातों का अर्जुन पर क्या असर हुआ है। क्योंकि इससे भविष्य के बारे में भी उन्हें निश्चिंत हो जाने की बात थी। कम से कम यह तो समझ जाते जरूर ही कि हम एवं अर्जुन भी कितने गहरे पानी में हैं। इसीलिए उनने पूछा, और यह जान के उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा कि अर्जुन ने न सिर्फ गौर से उनके उपदेशों को सुना, बल्कि समझा भी पूरी तरह से और तैयार भी वह हो गया तदनुकूल ही। यही प्रश्न और उत्तर आगे के दो श्लोकों में क्रमश: आए हैं।

कच्चिदेतच्छ्रतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदज्ञानसम्मोह: प्रनष्टस्ते धनंजय॥ 72 ॥

हे पार्थ, भला कहो तो कि आया तुमने यह उपदेश एकाग्र चित्त से सुना है (और अगर हाँ, तो) आया तुम्हारा (वह) अज्ञान से उत्पन्न हृदय का अंधकार मिटा है? 72।

कच्चित् शब्द वहीं बोला जाता है जहाँ उत्तर के बारे में संदेह हो और पूछनेवालों का मन खुद आगा-पीछा करता हो कि देखें क्या होता है। यहाँ \'अज्ञानसम्मोह:\' में सम्मोह वही है जिसका वर्णन \'क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:\' (2। 63) में आया है। वहाँ सम्मोह का परिणाम लिखा है स्मृति-विभ्रम या स्मृति का गायब हो जाना। अर्जुन ने इसी स्मृति-विभ्रम के फेर में ही तो न लड़ने का निश्चय कर लिया था। हम इसका अर्थ वहीं अच्छी तरह बता चुके हैं। कृष्ण का खयाल था कि यदि अर्जुन ने ठीक-ठीक सुना और समझा होगा तो फौरन वह यही उत्तर देगा कि हमें स्मृति मिल गई। सम्मोह कहने में कृष्ण का दूसरा मतलब था। साधारणत: दिल-दिमाग की सफाई की बात तो थी ही। मगर ऐसा भी तो हो सकता था कि अर्जुन उन्हें खुश करने के ही लिए कह देता कि हाँ, हमने सब कुछ समझ लिया। तब क्या होता? तब तो सब कुछ बेकार हो जाता। किंतु इसकी पहचान कैसे हो कि उसने आया सचमुच ही समझा है और मान लिया है, या केवल शिष्टाचार की बातें करता है? इसीलिए सम्मोह पद दिया। क्योंकि इसका संबंध स्मृति-विभ्रम से है। फलत: अगर अर्जुन ने ध्‍यान दे के सुना और समझा है तो जरूर ही कह देगा कि स्मृति प्राप्त हो गई। लेकिन यदि ऐसा न होगा तो कुछ और ही बोलेगा। और कृष्ण की प्रसन्नता का क्या ठिकाना रहा होगा जब उनने सुना कि अर्जुन ठीक वही \'स्मृतिर्लब्धा\' ही बोल उठा? बस, उनने जान लिया कि अर्जुन ने यह उत्तर शिष्टाचार से न दे के सचमुच ही हृदय से दिया है और उसे हमने जो भी उपदेश दिया है उसका उस पर पूरा असर हुआ है। \'ध्यायतो विषयांपुंस:\' तो आखिर उसी उपदेश का अमली और व्यावहारिक रूप ही था न?

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसंदेह: करिष्ये वचनं तव॥ 73 ॥

(इस पर चट) अर्जुन ने उत्तर दिया कि हे अच्युत, आपकी कृपा से (मेरा) मोह भाग गया, (वह) स्मृति (पुनरपि) जग उठी और मैं संदेह-रहित - स्थितप्रज्ञ हो गया हूँ। (इसलिए) आपकी बात मानूँगा। 73।

इसमें \'स्मृतिर्लब्धा\' की ही तरह \'स्थित:\' शब्द भी मार्के का है। क्योंकि द्वितीय अध्‍याय में स्मृति और सम्मोह की बातें स्थितप्रज्ञ के ही प्रसंग में आई हैं। इसलिए स्वाभाविक ही है कि सम्मोह हटने पर स्मृति फिर जग उठे और मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाए। फलत: अर्जुन ने जो उत्तर दिया उसमें स्थितप्रज्ञ का निर्देश भी जरूरी था और उसी के मानी में ही \'स्थितोऽस्मि\' आया है। इसमें और स्थितप्रज्ञ कहने में जरा भी अर्थभेद या अंतर नहीं है। हमने यही अर्थ लिखा भी है। स्थितप्रज्ञ की पहचान पहले ही बताई गई है। उसकी सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि अपने लिए उसे कुछ करना रही नहीं जाता। फलत: जो कुछ भी वह करता है लोकसंग्रह की ही दृष्टि से। इसलिए अर्जुन ने यह कहने की अपेक्षा कि \'करिष्ये धर्ममात्मन:\' - \'अपना धर्म करूँगा\', यही कहना उचित समझा कि \'आपकी बातें मानूँगा\' - \'आप जैसा कहते हैं वही करूँगा\' - \'करिष्ये वचनं तव\'। इससे कृष्ण को और भी पूरा यकीन हो गया कि अर्जुन ने अच्छी तरह हमारा उपदेश सुना है, समझा है और काम भी तदनुसार ही करेगा।

इस तरह कृष्ण और अर्जुन के संवाद को संजय ने धृतराष्ट्र से ज्यों का त्यों सुना दिया। यहाँ लोगों को यह खयाल हो सकता है कि उसने मनगढ़ंत बातें ही कही होंगी। क्योंकि भीषण संग्राम की स्थली से बहुत ज्यादा दूर बैठे-बैठे सारी बातें आखिर उसे मालूम कैसे हुईं? वहाँ तो कोई टेलीफोन या तार भी न था और न बेतार का तार ही। और अगर होता भी तो इससे क्या? संजय के साथ उसके जरिए कृष्ण और अर्जुन तो बातें करते जाते न थे और न माइक्रोफोन पर बैठके ही बातें करते थे कि संजय भी सुन लेता। और अगर संजय सुनता तो धृतराष्ट्र भी जरूर सुनता। फिर इस प्रश्नोत्तर की जरूरत दोनों के बीच क्यों होती कि कुरुक्षेत्र में क्या हुआ, क्या नहीं? लोगों के अलावे खुद धृतराष्ट्र को ही शक हो सकता था कि संजय बातें तो नहीं बना रहा है? यह ठीक है कि व्यास जी ने उससे कह दिया था कि संजय सारी बातें बैठे-बिठाए जान जाएगा। क्योंकि इसे मैं दिव्य दृष्टि (Television) दिए देता हूँ। इसीलिए दिन-रात में जब कभी धीरे या जोर से बातें होंगी या और भी जो काम होंगे, यहाँ तक कि लोगों के मन में भी जो कुछ बातें आएँगी सभी इसकी आँखों के सामने नाचने लगेंगी। फलत: अथ से इति तक युद्ध का सारा वृत्तांत तुम्हें ज्यों का त्यों सुना देगा, - \'एष ते संजयो राजन् युद्धमेतद्वदिष्यति। एतस्य सर्वसंग्रामे न परोक्षं भविष्यति॥ चक्षुषा संजयो राजंदिव्येनैव समंवित:। कथयिष्यति युद्धं च सर्वज्ञश्च भविष्यति॥ प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा दिवा वा यदिवा निशि। मनसाचिंतित मपि सर्वं वेत्स्यति संजय:॥\' (महा. भीष्म. 6। 9-11)। लेकिन धृतराष्ट्र की बुद्धि तो उस समय मारी गई थी। वह ठिकाने न थी। वही बुरी तरह परेशान भी था। व्यास जी से भी उसने साफ ही यह बात स्वीकार की थी। इसलिए उसके मन में ऐसा खयाल होना असंभव न था। कुटिल तो था ही। और उसे चाहे भले ही शक हो, या न हो, किंतु लोगों को तो हो सकता था ही। क्योंकि व्यास का यह प्रबंध सब लोग तो जानते न थे। गीता में कहीं पहले यह बात आई भी नहीं है। महाभारत में लिखी होने पर भी गीता तो स्वतंत्र-सी चीज है न? फलत: केवल गीतापाठी को भी ऐसा खयाल न हो इसीलिए आगे के चार श्लोकों में से पहले दो में संजय ने खुद यही बात कही है कि व्यास जी की कृपा से ही मैंने यह सब कुछ सुना है। शेष दो में इस गीतोपदेश की अलौकिकता तथा कृष्ण की उस समय की अलौकिक भावभंगी का निरूपण किया है।

संजय उवाच

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन:।

संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्॥ 74 ॥

व्यासप्रसादाच्छ्रतवाने तद्गुह्यमहं परम।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम्॥ 75 ॥

संजय ने कहा (कि) इस तरह वासुदेव कृष्ण और महात्मा अर्जुन का यह अद्भुत (एवं) रोमांचकारी संवाद मैंने (खुद-ब-खुद) सुना था। व्यास की कृपा से यह अत्यंत गोपनीय योग मैंने स्वयं योगेश्वर कृष्ण से साक्षात कहते हुए ही सुना था। 74। 75।

पार्थ का जो विशेषण महात्मा दिया गया है उससे भी सिद्ध हो जाता है कि अर्जुन ने आत्मतत्त्व और तन्मूलक कर्म-अकर्म का पूर्ण रहस्य अच्छी तरह हृदयंगम कर लिया था।

संजय ने यह बात धृतराष्ट्र से तब कही थी जब भीष्म आहत हो चुके थे, न कि कृष्ण के उपदेश के ही समय। इसीलिए भूतकाल के सूचक \'अश्रौषम्\' तथा \'श्रुतवान्\' पद आए हैं।

यह संवाद निराला है यह भी कह दिया है। ठीक ही निराला था।

रोमहर्षण का मतलब है आनंद के मारे ही रोंगटे खड़े कर देने वाला, न कि भय से। क्योंकि भय का कोई अवसर था नहीं।

गीताधर्म को भी योग कहा है। यों तो गीता के सारे विषय ही योग कहे गए हैं। इसीलिए कृष्ण योगेश्वर हैं। उनसे बढ़ के इस योग को और कौन जानता था?

सचमुच ऐसे योगेश्वर के मुख से ही सुनने में कितना आनंद आया होगा, जब कि पीछे पढ़ने में इतना ज्यादा मन आकर्षित होता और मजा मिलता है। इसीलिए तो संजय की उस समय भी अजीब हालत थी। सुनना तो पहले ही हो चुका था उस समय तो उसी की स्मृति मात्र थी। फिर भी रह रह के वह गद्गद हो जाता है, यह खुद स्वीकार करता हुआ कहता है कि -

राजन् संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।

केशवार्जुनयो: पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु:॥ 76 ॥

हे राजन, केशव तथा अर्जुन के इस महान संवाद को (इस समय भी) बार-बार याद करके रह-रह के गद्गद हो जाता हूँ। 76।

यह संवाद ऐसा निराला है कि हमेशा ताजा ही मालूम पड़ता है। इसीलिए कुछ समय बीतने पर भी जब संजय उसे केवल याद कर पाता है, तो भी वह जैसे आँखों के सामने नाचता रहता है और ओझल नहीं होता। यही कारण है कि उसे \'तम्\' न कह के \'इयम्\' कहता है। \'तं\' कहने से परोक्ष या ओझल जान पड़ता न? मगर सो तो है नहीं। यह ठीक है कि उसका वर्णन तो अभी-अभी हुआ है। इसीलिए पहले भी \'तत्\' की जगह \'एतत्\' ही आया है। मगर यह बात इनकार नहीं की जा सकती कि वह दिमाग में नाचता जरूर था। नहीं तो साधारण चीज होने पर कभी \'तम्\' भी जरूर कह देते। सारा वर्णन ही यही सूचित करता है। इतने पर भी वह संवाद अलौकिक होता ही नहीं यदि अर्जुन की उस समय की अलौकिक मनोवृत्ति के साथ ही गीता धर्म के उपदेशक एवं प्रथमाचार्य कृष्ण की भावभंगी भी दिव्य और अलौकिक न होती। दरअसल सारी खूबी और सारा मजा तो उपदेशक को भावभंगी और प्रतिपादन शैली में ही होता है। इसलिए संजय स्वयमेव कृष्ण की उस निराली, भावभंगी की ओर इशारा करता हुआ कहता है कि -

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:।

विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च पुन: पुन:॥ 77 ॥

हे राजन, हरि का - कृष्ण का - वह अत्यंत अद्भुत रूप याद कर-करके मुझे महान विस्मय हो रहा है और बार-बार गद्गद हो जाता हूँ। 77।

इस श्लोक के संबंध में बहुत-सी बातें थोड़ी देर पहले कही जा चुकी हैं। फिर भी कितनी ही कहने को शेष हैं। बहुतों की यह धारणा है कि संजय यहाँ भगवान के उस विश्वरूप के ही बारे में कह रहा है जिसका वर्णन ग्यारहवें अध्‍याय में आया है। प्राय: सभी भाष्यकारों और टीकाकारों ने यही अर्थ किया है। दर हकीकत मेरी नजर के सामने एक भी टीका अब तक ऐसी नहीं गुजरी हैं, जिसमें वैसा अर्थ न किया गया हो। हरि के रूप के अति, अद्भुत आदि विशेषणों से ही और भी आसानी से इस अर्थ की ओर लोग झुक पड़े हैं। मगर हमने तो पहले लिखा है कि यह बात नहीं है। इसका कारण भी काफी दिया है। इतना ही नहीं, हमने तो यह भी चित्रित करने का यत्न किया है कि जिस रूप का यहाँ उल्लेख है वह वस्तुत: किस तरह का था। रथ पर अर्जुन और कृष्ण दोनों ही खड़े थे। युद्ध में ऐसा ही होता था। कृष्ण घोड़ों की बाग पकड़े खड़े थे। मगर जब अर्जुन ने अपना रोना-गाना एकाएक शुरू कर दिया तो जो कृष्ण घोड़ों की ओर मुँह किए खड़े थे वह अचानक यह सुनते ही पीछे मुड़ पड़े और अर्जुन की बातें गौर से सुनने लगे। जैसे-जैसे बातें सुनते जाते थे उनका चेहरा-मुहरा बदलता जाता था। ऐसा होते-होते \'अशोच्यानंवशोचस्त्वं\' (2। 11) शुरू करने के पहले तक उनकी जो अलौकिक भावभंगी हो चुकी थी हमने उसी का चित्र खींचने का यत्न किया है और उसी से यहाँ आशय है। भला विश्वरूप दर्शन से और गीतोपदेश से क्या ताल्लुक? वह तो गीतोपदेश के बीच की हजार बातों में केवल एक है। मगर यहाँ तो स्पष्ट ही गीता के समूचे संवाद का और योग का उल्लेख है। योग भी वह जिसे कृष्ण ने कहा था, जिसे वह कह रहे थे। क्योंकि साफ ही \'कथयत:\' लिखा है। न कि जिसे दिखाया था। यह मार्के की बात है।

एक बात और भी है। विश्वरूप के बारे में ग्यारहवें अध्‍याय में स्पष्ट ही कहा है कि अर्जुन के अलावे पहले किसी ने भी उसे नहीं देखा था और न आगे कोई देख ही सकता है। यह बात हमने ग्यारहवें अध्‍याय के उन श्लोकों को उद्धृत करके थोड़ी ही देर पहले सिद्ध की है। किंतु यह बात झूठी हो जाती है यदि संजय उस विश्वरूप को याद करता है। क्योंकि स्मृति के पहले तो देखना जरूरी है न? बिना देखे स्मृति कैसी? अर्जुन या कृष्ण के मुख से जो कुछ वर्णन ग्यारहवें अध्‍याय में आया था केवल उसे वहाँ कह देना और बात हैं। वह जैसे का तैसा सुन के ही हो सकता था। मगर उसमें वह मजा स्वयं संजय को नहीं मिल सकता था जो देखने में मिलता। देखे हुए ही का प्रबलतम संस्कार होता है वही जग के उसे ला खड़ा करता है आँखों के सामने। सुने हुए के बारे में यह बात नहीं होती, नहीं हो सकती। संजय को दिव्यदृष्टि मिलने पर भी ग्यारहवें अध्‍याय वाले कृष्ण के वचनों से ही सिद्ध है कि वह विश्वरूप न तो पहले किसी ने देखा था और न आगे कोई देख सकेगा। तब संजय उसे देख सकता था कैसे? यह बात मानी कैसे जा सकती है? लेकिन इस श्लोक के पदों को पढ़ के कोई भी कह सकता है कि आँखों देखे स्वरूप का ही उल्लेख संजय करता है। फलत: उपदेश के आरंभ वाले रूप से ही यहाँ तात्पर्य है।

इसके संबंध में इसी श्लोक में एक और भी प्रमाण मिल जाता है। हमने तो पहले ही कहा है कि विलक्षण और अलौकिक होने के नाते ही उस संवाद को आँखों के सामने बराबर नाचने वाला मान के उसे बार-बार \'एतत्\' \'इमम्\' कहा है। लेकिन कृष्ण का विश्वरूप तो और भी ज्यादा आँखों के सामने नाचने वाला था। फिर भी उसे इसी श्लोक में \'तच्च\' कह दिया है। \'तत् च\' में उसे \'तत्\' या दूर का कहने के क्या मानी हो सकते हैं। यह तो उलटी-सी बात मालूम होती है, दरअसल \'एतत्\' तो उसी को कहना उचित था। हाँ, उसमें एक खतरा जरूर था। कृष्ण के उपदेश के समय के रूप के बाद विश्वदर्शन के समय विश्वरूप आया था। फलत: उससे निकट का यही पड़ता था। इसलिए एतत् कहने से स्वभावत: लोग इसे ही समझ सकते थे। क्योंकि पहला रूप अपेक्षाकृत इससे दूर पड़ जाता था। इसीलिए संजय ने \'तत्\' कह दिया और सारा झमेला ही खत्म हो गया। क्योंकि अब तो मौका ही न रहा कि विश्वरूप का खयाल भी किया जाए। मगर जो लोग फिर भी विश्वरूप को ही मानते हैं उनके लिए तत् का औचित्य बताना कठिन है।

गीतोपदेश की बातों का उपसंहार करते हुए अंत में संजय ने धृतराष्ट्र को धोखे में रखना उचित न समझ विजय तथा पराजय के संबंध में भी अपनी स्पष्ट राय दे दी कि कौन जीतेगा, कौन हारेगा। इसका कारण भी धीरे से बता दिया। जिस पक्ष में योगेश्वर कृष्ण हों जो सभी युक्तियों के आचार्य हैं और जहाँ पार्थ जैसा धनुर्धर हो उस पक्ष की जीत न होगी तो होगी किसकी? यह तो मोटी-सी बात है। शायद धृतराष्ट्र के मन में कुछ आशा बँधी थी। क्योंकि एक तो वह अपने लड़कों के मोह में बुरी तरह फँसा था। दूसरे लोभ और मोह के करते उसकी विवेक-शक्ति नष्ट हो चुकी थी। ऐसी दशा में गीतोपदेश का युद्ध पर क्या असर होगा यह बात वह शायद ही समझ सकता था।

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥ 78 ॥

जहाँ - जिस पक्ष में - योगेश्वर कृष्ण हैं (और) पार्थ (जैसा) धनुर्धर है वहीं लक्ष्मी, विजय, ऐश्वर्य और पक्की - अटल - नीति है, यही मेरा निश्चय है। 78।

अटल और पक्की नीति जहीं रहेगी वहीं विजय भी होगी और उसके बाद उसमें स्थिरता भी आएगी। इसीलिए तो भारवि ने किरातार्जुनीय में कहा है कि जिस चीज को दुर्योधन ने जैसे-तैसे जीत लिया था वह उसी को नीति के बल से सदा के लिए जीत लेना - उस विजय को स्थाई कर लेना - चाहता है, \'दुरोदरक्षद्मजितां समीहते नयेन जेतुं जगतीं सुयोधन:\' (1। 7)। कहने का आशय यही है कि पांडवों की जीत भी होगी और वह स्थाई भी हो जाएगी।

लक्ष्मी या संपत्ति और ऐश्वर्य में अंतर है। ऐश्वर्य व्यापक चीज है। शासनादि भी इसमें आ जाते हैं। भूति का अर्थ विस्तार है, फैलाव है और हमने ऐश्वर्य इसी को कहा है ध्रुवा नीति कहने से कच्ची और बराबर बदलने वाली दुर्योधन की नीति घातक सिद्ध हो जाती है। चाहे जो हो। फिर भी नीति तो पक्की और स्थाई होनी चाहिए और गीता ने उसी पर जोर दिया है।

इस अध्‍याय का विषय मोक्षसंन्यासयोग लिखा है। इससे स्पष्ट है कि संन्यास से ही शुरू करके अंत में भी संन्यास ही आया है और उसी के साथ मोक्ष भी। यों तो शुरू में गीता में दूसरे ढंग के भी संन्यास का वर्णन आया है और अठारहवें अध्‍याय के शुरू में भी उसी को सभी कर्मों के सदा त्याग के रूप में लिखा है। मगर उससे मोक्ष तो होता नहीं। इसीलिए वह इस अध्‍याय का और गीता का भी विषय कभी हो नहीं सकता। हाँ, अंत के 66वें श्लोक में मोक्ष के साधन के रूप में जिस संन्यास का वर्णन किया है वही गीता को मान्य है और वही इस अध्याय का विषय है। चौथे अध्‍याय में भी संन्यास आया है। मगर एक तो वह ज्ञान के साथ आया है। दूसरे उस अध्‍याय का वही अकेला विषय नहीं है। हाँ, पाँचवें का विषय सिर्फ संन्यास ही है। फिर भी यहाँ उसी को स्पष्ट कर दिया है कि उससे केवल ज्ञान ही नहीं होता, किंतु मोक्ष भी मिलता है। इस प्रकार तीन अध्‍याय इस संन्यास के प्रतिपादन में लगे हैं।

इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्याय:॥ 18 ॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मज्ञान-प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्‍याय यही है।

कुछ लोगों ने \'इति\' का अर्थ \'समाप्त हुआ\' ऐसा किया है। मगर सच पूछिए तो उसका अर्थ है \'यह\'। यह पहले कही गई बात की ही ओर इशारा करके उसी को याद कराता है। \'इत्यहं वासुदेवस्य\' (18। 74) तथा \'इति ते ज्ञानमाख्यातम्\' (18। 63) आदि में सर्वत्र यही अर्थ इति शब्द का माना गया है। हमने यही लिखा भी है। समाप्ति तो अर्थसिद्ध चीज है, न कि शब्दार्थ और वह भी कुछ जँचती नहीं है। इसी से हमने उसे छोड़ दिया है।






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1 Comments

Dilawar Singh

08-Feb-2024 11:34 AM

👌👌

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